वसीयत की असलियत को सिद्ध करने का भार केवल वसीयत के लाभार्थी का, वरना वसीयत बेअसर… सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि वसीयत के जरिये संपत्ति पर दावा करने वाले का दायित्व है कि वह वसीयत की सत्यता सिद्ध करे। सिर्फ इसलिए कि वसीयत पंजीकृत है, इसका मतलब यह नहीं है कि इसकी सच्चाई सिद्ध करने की कानूनी आवश्यकताओं का पालन नहीं किया जाएगा।
जस्टिस एल नागेश्वर राव की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए एक वसीयत को झूठा करार दिया और हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया था, जिसने वसीयत के आधार पर प्रशासन पत्र प्रदान (एलओए) प्रदान करने का दावा खारिज कर दिया था। परिजनों ने मद्रास हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।इस आधार पर कोर्ट ने दिया फैसला
कोर्ट ने कहा कि हमने पाया कि वसीयत करने वाले को लकवा मार गया था। उसका दाहिना हाथ और पैर काम नहीं कर रहे थे। वह मजबूत मनोस्थिति में नहीं था। वहीं विल पर किए गए दस्तखत कंपन के साथ किए गए थे, जो उसकी साधारण हैंडराइटिंग से मेल नहीं खा रहे थे। इसके अलावा दो गवाह, जिन्होंने वसीयत पर दस्तखत किए थे, वे भी वसीयतकर्ता के लिए अजनबी थे। इसके अलावा वसीयत पर दावा करने वाले ने वसीयत बनवाने में बहुत सक्रिय भाग लिया था और वसीयत बनने के 15 दन के बाद ही कर्ता का निधन हो गया। वहीं यह वसीयत लंबे समय तक अंधेरे में रही और उसके बारे में किसी को पता नहीं था। वसीयत पर यह भी कहीं स्पष्ट नहीं था कि बनाने वाले ने अपने प्राकृतिक उत्तराधिकारियों (बेटियों) को संपत्ति से बेदखल क्यों किया।
बेटियों ने कहा-वसीयत फर्जी है,याचिकाकर्ता के पिता ईएस पिल्लै की 1978 में मृत्यु हो गई थी। वह अपने पीछे एक वसीयत छोड़ गए थे, जो दो गवाहों के सामने बनाई गई थी। वसीयतकर्ता के एक पुत्र और दो पुत्रियां थीं। पुत्र की मृत्यु 1989 में हो गई। वह अपने पीछे पत्नी और दो बच्चों को छोड़ गए। पिता की मृत्यु के बाद पुत्रियों ने संपत्ति के बंटवारे के लिए मुकदमा दायर किया। इसके जवाब में उनकी भाभी ने संपत्ति के लिए एलओए प्रदान करने के लिए आवेदन किया। पुत्रियों ने कहाकि वसीयत फर्जी है, क्योंकि लकवे के कारण पिता बिस्तर पर थे और वसीयत बना ही नहीं सकते थे। ऐसे में वसीयत शक के दायरे में है, इसलिए इसे निरस्त किया जाए। ट्रायल कोर्ट ने पुत्रियों के दावे को सही माना और वसीयत खारिज कर दी।